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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

अध्याय 19  व्यक्तित्व-दर्शन

आश्चर्य की बात है कि तिलक के फोटो और चित्र एक ही तरह के दीखते हैं, चाहे वे 1890 के हों या उससे 25 वर्ष बाद के। महारानी विक्टोरिया से लेकर सम्राट जॉर्ज के शासन काल तक उनका एक ही ढंग का महाराष्ट्रीय लिबास था-सर पर लाल रंग की नुकीली पगड़ी, अंगरखा, कंधे पर दुपट्टा, धोती और पूना के जूते। पगड़ी और जूते को छोड़, बाकी सभी चीजों का रंग सदैव बिल्कुल सफेद रहता था। हां, अपने इंगलैड प्रवास के समय उन्होंने जरूर बन्द गले की लम्बी कोट और पतलून पहनी थी, किन्तु अपनी पगड़ी उन्होंने वहां भी नहीं छोड़ी, उसे बांधते रहे।

रत्नगिरि में पैदा होने के लिहाज से उनका रंग सांवला था, लेंकिन उनका चेहरा मोहरा ठीक वहां के लोगों की तरह ही था। उनका कद मझौला और शरीर का गठन सामान्य था-शरीर का वजन कभी भी 140 पौंड से ज्यादा नहीं रहा। चौड़े ललाट और अपूर्व चमक वाली आंखों के कारण उनका व्यक्तित्व औरों के बीच आकर्षण का केन्द्र बिन्दु बन जाता था। इसीलिए बम्बई सरकार के तत्कालीन कृषि निदेशक डां० हेराल्ड एच० मान ने लिखा है कि ''उनकी मौजूदगी का आभास तत्काल मिल जाता था।''

किसी व्यक्ति का वस्त्र प्रायः उसके व्यक्तित्व का परिचायक होता है। तिलक की रहन-सहन उनकी पोशाक की तरह ही बिलकुल सीधी-सादी थी। भोजन के बारे में उनकी कोई खास पसन्द-नापसन्द नहीं थी, बल्कि सच तो यह है कि उनके सामने जो कुछ परोसा जाता था, उसके स्वाद का उन्हें कोई खयाल नहीं रहता था। वह कहा भी करते थे कि ''मैं जीने के लिए ही खाता हूं।'' और यह बात तब अक्षरशः सत्य हो गई, जब उन्हें मधुमेह के रोगी की खुराक पर रहना पड़ा। फिर भी उन्हें चाय, ठंडा सोडा और सुपारी बहुत पसन्द थी और सुपारी के बिना तो उनका काम ही नहीं चल सकता था। उनका घर भी बहुत सीधे सादे ढंग से सजा था। उसमें लिखने की एक मेज, किताबों से भरी आलमारियां और एक आराम कुर्सी पड़ा रहती थी, जिस पर वह अधिकतर बैठे रहते थे, जब उनकी देह पर आम तौर से कोई कमीज नहीं होती थी और उसी तरह वह पढ़ा करते थे। या कोई चीज बोलकर लिखाते थे। आगन्तुकों से मिला करते थे। वह लोगों के यहां बहुत कम आते-जाते थे और घूमने-फिरने के लिए भी कदाचित ही बाहर निकलते थे।

तिलक के लिए ऐशोआराम का एकमात्र साधन सिंहगढ़ में फूस का बना एक कुटीर था, जहां वह प्रायः विश्राम और एकांत का आनन्द उठाने के लिए जाया करते थे। हालांकि वह लोगों से मिलना जुलना बहुत पसन्द करते थे और डॉ. जानसन की तरह वह भी ऊंची आवाज में अपनी बातचीत और कहकहों से मित्रों को आनन्द-विभोर कर देते थे, फिर भी कभी-कभी वह ''भीड़-भाड़ के जीवन से दूर'' रहने की जरूरत भी महसूस करते थे। चूंकि सिंहगढ़ से इतिहास का एक रोमांचकारी अध्याय जुड़ा हुआ है, इसलिए सम्भव है कि इसी कारण से वह उनके लिए एक आकर्षण केन्द्र रहा हो। अपने अतिथियों के लिए 'गाइड' (पथ-प्रदर्शक) का काम करते हुए वह बड़ी शान से वे जगहें दिखाया करते थे, जहां शिवाजी के सिपाहियों ने रात के सन्नाटे में विकट खड़ी चट्टानों को पार किया था और उनके बहादुर सेनापति ताना जी ने लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की थी।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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